गुरुवार, अक्तूबर 08, 2009

और अब 'प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री' के राजनीति से सन्यास की हाँ-ना

और अब 'प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री' के राजनीति से सन्यास की हाँ-ना

तनवीर जांफरी

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      भारतीय जनता पार्टी के विगत् लोकसभा चुनावों में 'प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री' (प्राईम मिनिस्टर इन वेटिंग) घोषित लाल कृष्ण आडवाणी हालांकि लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद कुछ समय के लिए 'भूमिगत' हो गए थे। मीडिया 'लौहपुरुष' के दर्शन के लिए कई दिनों तक उनकी तलाश करता रहा। परन्तु आपने दर्शन नहीं दिए। शायद वह जानते थे कि उनके पास उस समय तत्काल मीडिया को देने के लिए कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है। बहरहाल झूठ, आडंबर और अहंकार का पिटारा आंखिरकार फूट ही गया। और देश की जनता ने भाजपा द्वारा कमंजोर प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित किए जाने वाले डॉ मनमोहन सिंह को एक बार पुन: भारत का प्रधानमंत्री निर्वाचित कर दिया। कांफी प्रतीक्षा के बाद 16 मई के पश्चात जब आडवाणी एक बार फिर सामने आए, उस समय उनके साथ ही साथ उनके लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद न ग्रहण करने, यहां तक कि राजनीति से आडवाणी के सन्यास लेने तक की ंखबरें आनी शुरु हो गईं। और आज 5 माह बीत जाने के बाद भी इसी प्रकार की ंखबरों का बांजार उसी प्रकार गर्म है।

              देश की जनता को आडवाणी के राजनीति से सन्यास लेने की बार-बार आने वाली ंखबरों से ऐसा आभास हो रहा है जैसे कि आडवाणी स्वयं तो राजनीति से बिदाई चाह रहे हैं परन्तु शायद उन्हें ऐसा करने से कोई रोक रहा है। चूंकि राजनैतिक सन्यास की यह बात अडवाणी जैसे उच्चकोटि के राजनीतिज्ञ से जुड़ी है, इसलिए निश्चित रूप से राजनीति पर नंजरें रखने वाला देश का प्रत्येक जागरूक व सुधी व्यक्ति पूरी दिलचस्पी के साथ इन ंखबरों पर अपनी नंजरें जमाए हुए है कि देखें आंखिर आडवाणी का 'बहुचर्चित राजनैतिक सन्यास' किस 'घड़ी' में अमल में आता है। परन्तु 6 माह से लगातार केवल चर्चाओं में रहने तथा इसके अमल में न आने के परिणामस्वरूप अब ऐसा भी लगने लगा है कि कहीं उनका राजनीति से सन्यास भी प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री जैसा ही एक 'शोशा' तो नहीं है जोकि केवल चर्चा के लिए हो परन्तु अमल में आने या कार्यान्वित होने के लिए नहीं।

              विगत् लोकसभा चनाव निश्चित रूप से भाजपा द्वारा लाल कृष्ण आडवाणी के व्यक्तित्व को सामने रख कर लड़े गए थे। भाजपा के आला नेताओं को इस बात की पूरी उम्मीद थी कि आडवाणी का ऊंचा राजनैतिक ंकद पार्टी को सत्ता ंजरूर दिला देगा। परन्तु भारतीय मतदाताओं ने भाजपा नेताओं की ऐसी सभी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। इन 6 महीनों के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित पार्टी के ही कई वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी की हार के लिए आडवाणी को ंजिम्मेदार भी ठहराया। कंधार विमान अपहरण कांड के मुद्दे पर आडवाणी द्वारा डाले जाने वाले संफेद झूठ के पर्दे को भी भाजपा नेताओं ने ही बेनंकाब किया। और इन दिनों महाराष्ट्र, हरियाणा तथा अरुणाचल प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में भाजपा द्वारा चुनाव प्रचार की जो रणनीति तैयार की गई है, उसे देखकर भी यही प्रतीत होता है कि अब पार्टी के रणनीतिकार आडवाणी के राजनैतिक व्यक्तित्व को करिश्माई व्यक्तित्व मानने को हरगिंज तैयार नहीं। इस बार भाजपा ने अपने स्टार प्रचारकों की सूची में सबसे पहला नाम एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी का रखा है। हालांकि अपनी बढ़ती उम्र तथा कमंजोरी के चलते वे व्यक्तिगत् रूप से चुनाव प्रचार में भाग नहीं ले सकेंगे। परन्तु उनके कुछ चुनिंदा भाषणों को सीडी व डीवीडी तथा उनके संदेशों के माध्यम से मतदाताओं के बीच उन्हें ले जाने का प्रयास किया  जा रहा है। पोस्टरों तथा अन्य प्रचार सामग्रियों में भी वाजपेयी की ंफोटो को शीर्ष स्थान दिया जा रहा है। यहां ंगौरतलब यह है कि पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान पार्टी ने लाल कृष्ण आडवाणी के राजनैतिक ंकद को ही इतना ऊंचा मान लिया था कि उन्हें वाजपेयी के भाषण की सीडी, उनके संदेश अथवा उनके चित्रों की आवश्यकता ही नहीं महसूस हुई थी। परन्तु चुनाव परिणाम आने के बाद पार्टी के रणनीतिकारों को यह एहसास हुआ कि आडवाणी को करिश्माई नेता समझना दरअसल उनकी एक बड़ी भूल थी। इन विधानसभा चुनावों में पुन: वाजपेयी के चित्र व उनके भाषणों को आगे रखना एक बार फिर यह साबित कर रहा है कि पार्टी को अब भी वाजपेयी के व्यक्तित्व पर अधिक विश्वास है न कि आडवाणी जैसे 'लौहपुरुष' पर।

              प्रश्न यह है कि राजनीति में अपमान की ऐसी पराकाष्ठा आडवाणी कब तक सहन करते रहेंगे। राजनीति से सन्यास के विषय पर संघ अथवा अपने गुरु (स्वामी जी) से चर्चाएं करने अथवा उनसे सलाह लेने के बजाए वे स्वयं इस निर्णय को लेने में क्यों हिचकिचा रहे हैं? ऐसा नहीं लगता कि पार्टी का कोई वर्ग उन्हें राजनीति से सन्यास लेने से रोक रहा है। बजाए इसके ऐसा ंजरूर प्रतीत होता है कि आडवाणी स्वयं राजनीति से अपने सन्यास की चर्चाएं छेड़कर पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं की नब्ंज टटोलना चाह रहे हैं। परन्तु इत्तेंफांक से किसी ओर से भी ऐसे कोई समाचार अब तक सुनने को नहीं मिले जिससे कि यह पता चल सके कि कोई बड़ा पार्टी नेता या पार्टी कार्यकर्ता आडवाणी के राजनीति से सन्यास के ंफैसले का प्रबल विरोध कर रहे हों।

              लोकसभा के चुनाव परिणाम आने से पूर्व ही आडवाणी ने स्वयं यह बात कही थी कि यदि वे सत्ता में नहीं आए अथवा प्रधानमंत्री नहीं बने तो वे राजनीति से सन्यास ले लेंगे। परन्तु ऐसा करने के बजाए उन्होंने एक बार फिर अपने लंबे राजनैतिक अनुभव का प्रयोग अपने राजनैतिक सन्यास के विषय पर करना शुरु कर दिया है। उनके सन्यास की ंखबरें भी मीडिया में प्रमुखता से प्रकाशित की जाने लगी हैं। परन्तु उनके राजनीति से सन्यास लेने अथवा न लेने के मंथन के बीच अब कोई 'अमृत' निकलता नंजर नहीं आता। जैसा कि राजनैतिक हालात बयान कर रहे हैं, उन्हें देखकर तो यही लगता है कि संभवत: अगले संसदीय चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़े जाएंगे। उस स्थिति में यह प्रश्  ंजरूर उठेगा कि मनमोहन सिंह को कमंजोर प्रधानमंत्री बताने वाले 'लौहपुरुष' जब कथित रूप से कमंजोर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पराजित नहीं कर सके फिर राजनीति से सन्यास न ल पाने की स्थिति में वे 2014 में राहुल गांधी से कैसा मुंकाबला कर सकेंगे। क्योंकि 2014 आते-आते एक ओर तो राहुल गांधी और अधिक परिपक्व राजनीतिज्ञ बन चुके होंगे जबकि आडवाणी जी 84 के बजाए 89 की दहलींज पर ंकदम रख चुके होंगे। और इतिहास इस बात का गवाह है कि 89 की उम्र में अब तक किसी भी नेता ने भारतीय प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण नहीं की है।

              उपरोक्त सभी परिस्थितियां एवं राजनैतिक हालात सांफतौर पर यह संकेत दे रहे हैं कि आडवाणी को राजनीति से सन्यास के अपने इरादे को सलाह-मशविरा या चर्चा के बीच रखने के बजाए उसे तत्काल अमले में लाना चाहिए तथा अपनी बची-खुची इंात आबरू को इतिहास के पन्नों के लिए संभाल कर रख देना चाहिए। उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता का इस बात के लिए शुक्रगुंजार भी होना चाहिए कि उन्होंने आडवाणी को न केवल देश के गृहमंत्री पद पर बिठाया बल्कि भारत का उप प्रधानमंत्री बनाकर उनका स्थान देश के उन चंद गिने-चुने नेताओं में बना दिया जोकि देश के उप प्रधानमंत्री का पद ग्रहण कर चुके हैं। ऐसे में आडवाणी यदि चाहें तो ंजंफर के इस शेर को अपने सन्यास का आधार भी बना सकते हैं :-

                  निकलना खुल्द* से आदम का सुनते आए थे लेकिन।

                 बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले॥

खुल्द*- जन्नत, स्वर्ग।                                                           

जा रहा है। पोस्टरों तथा अन्य प्रचार सामग्रियों में भी वाजपेयी की ंफोटो को शीर्ष स्थान दिया जा रहा है। यहां ंगौरतलब यह है कि पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान पार्टी ने लाल कृष्ण आडवाणी के राजनैतिक ंकद को ही इतना ऊंचा मान लिया था कि उन्हें वाजपेयी के भाषण की सीडी, उनके संदेश अथवा उनके चित्रों की आवश्यकता ही नहीं महसूस हुई थी। परन्तु चुनाव परिणाम आने के बाद पार्टी के रणनीतिकारों को यह एहसास हुआ कि आडवाणी को करिश्माई नेता समझना दरअसल उनकी एक बड़ी भूल थी। इन विधानसभा चुनावों में पुन: वाजपेयी के चित्र व उनके भाषणों को आगे रखना एक बार फिर यह साबित कर रहा है कि पार्टी को अब भी वाजपेयी के व्यक्तित्व पर अधिक विश्वास है न कि आडवाणी जैसे 'लौहपुरुष' पर।

तनवीर जांफरी