शुक्रवार, अप्रैल 10, 2015

द्वापर काल में भगवान श्री कृष्ण का लोकतंत्र , संसद , कानून और प्रजातांत्रिक राजाज्ञायें - नरेन्द्र सिंह तोमर ‘’आनंद’’ ( एडवोकेट )



द्वापर काल में भगवान श्री कृष्ण का लोकतंत्र , संसद , कानून और प्रजातांत्रिक राजाज्ञायें
नरेन्‍द्र सिंह तोमर ‘’आनंद’’ ( एडवोकेट )
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प्रथम भाग – प्रथम अंक
भारत जैसे देश में अक्सर लोकतंत्र या प्रजातंत्र की बातें भी सुनाई कही जातीं हैं और यह भी बताया जाता है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा , सबसे बेहतरीन लोकतंत्र वाला देश है । इसके साथ ही यह भी बताया जाता है कि भारत में इससे पूर्व राजतंत्र था और राजतंत्र बहुत बुरा था तथा राजतंत्र के अनेक दोष व खामीयां गिनाई जातीं हैं ।
यदि जो कहा बताया या पढ़ाया जाता है उसके आधार पर लोकतंत्र की परिभाषा लिखी जाये तो कुछ यूं बनेगी ‘’ जनता का, जनता द्वारा , जनता के लिये शासन’’ ही लोकतंत्र है , और यदि राजतंत्र की परिभाषा बकौल इन के की जाये तो ये लिखी जायेगी कि राजा का प्रजा पर प्रभुत्व संपन्न एकक्ष व एकमात्र राज्य या शासन ही राजतंत्र कहलाता है ।
खैर इस विषय में विद्वानों में गहरे मतभेद हैं और विद्वान , बुद्धिजीवी, इतिहासकार, एवं कानूनविद भी इन दोनों ही परिभाषाओं को भारत के परिप्रेक्ष्य में सही नहीं मानते । और विडम्बनावश भारत में ‘’लोकतंत्र’’ या प्रजातंत्र अभी आज दिनांक तक तो केवल मात्र एक सैद्वांतिक अवधारणा है और व्यावहारिक रूप से यह आज तक भारत देश में तथाकथि‍त प्रजातंत्र अभी तक नहीं आया है, केवल व्यवस्था का नाम बदल देने या पद नाम बदल देने या मात्र व्यक्त‍ि बदल देने से न तो व्यवस्था बदलती है और न उसमें सुधार ही संभव होता है ।
यहॉं यह उदाहरण देना सटीक होगा कि ‘’महाराजा’’ का नाम राष्ट्रपति रख दिया जाये और किसी रियासत या राज्य के राजा का नाम राज्यपाल रख दिया जाये , बाकी सब वही अर्थात प्रधानमंत्री, मंत्री गण एवं सभासद या दरबारी गण ( सांसद और विधायक) और भी कुछ है जिस पर आगे इसी आलेख में सब कुछ चर्चा में आयेगा । बस गुड़ का नाम शक्कर रख देने से और शक्कर का नाम गुड़ रख देने से कभी भी न तो गुड़ का और शक्कर का रूप रंग स्वाद व सवभाव बदलेगा ।
किसी भी शासन व्यवस्था हो या गृह व्यवस्था केवल व्यवस्था कान , पद नाम व व्यक्त‍ि मात्र बदल दिये जाने से वह व्यवस्था नहीं बदलती, बल्क‍ि उसका रूप व स्वभाव एवं व्यावहारिक अमल विकृत एवं दूषि‍त व विद्रूपित हो जाता है , प्रणाली दोषपूर्ण एवं दोषगत हो जाती है, व्यवस्था अपना चरित्र एवं नैतिकतायें खो देती है । और अत्यंत कुरूप व भयावह स्वरूप में प्रकट हो उठती है ।
हम जो आगे विषयवस्तु लिखने जा रहे हैं कि ‘’द्वापरकाल में श्री कृष्ण का लोकतंत्र’’ यह पूर्णत: प्रमाणि‍क एवं सौ प्रतिशत साबित एवं शास्त्रीय है । सारी शासन व्यवस्था का एक सिंहावलोकन एवं विद्वजनों व सुविज्ञों के लिये यह प्रश्न छोड़कर जायेगा कि तब ( द्वापर के श्रीकृष्ण काल) और अब आज के लोतंत्र काल में , क्या फर्क है अब में और तब की शासन व्यवस्था में या उस समय के संविधान संसद कानून राजाज्ञाओं और आज के संसद , कानून, संविधान और सरकारी आदेशों में ।
हम इस विषय को सौ फीसदी प्रमाणि‍कता के साथ विषयवस्तु व समग्र सिंहावलोकनीय सामग्री के साथ पूर्ण करने के साथ ही हमारे लगातार चल रहे एक अन्य आलेख ‘’दिल्लीपति महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर की दिल्ली सं चम्बल में ऐसाहगढ़ी तक की यात्रा’’ में भी आगे भारत यानि तोमर राजवंश के शासन व्यवस्था के ऊपर भी कुछ प्रकाश डालेंगें व उस शासन व्यवस्था का भी एक सिंहावलोकन प्रस्तुत करेंगें ।  
.......... क्रमश: जारी अगले अंक में